I have visited most part of the states of my India. I can speak more than ten languages. I am working in a readymade garment co. as Regional Sales Manager I love Maharashtra as well as Assam and Bihar. I have worked in DD Bihar's famouse maithili serial Master Saheb as Ramchander Babu. Have acted in Chidiyaghar, Savdhan India, Crime Alert, Khaki Ek Vachan, Chakradhari Ajay Krishna and many more........
Sunday, March 6, 2016
Sugouli Sandhi
सुगौली संधि
सुगौली संधि , ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच हुई एक संधि है, जिसे 1814-16 के दौरान हुये ब्रिटिश-नेपाली युद्ध के बाद अस्तित्व में लाया गया था। इस संधि पर 2 दिसम्बर 1815 को हस्ताक्ष्रर किये गये और 4 मार्च 1816 का इसका अनुमोदन किया गया। नेपाल की ओर से इस पर राज गुरु गजराज मिश्र (जिनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय थे) और कंपनी ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ ने हस्ताक्षर किये थे। इस संधि के अनुसार नेपाल के कुछ हिस्सों को ब्रिटिश भारत में शामिल करने, काठमांडू में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि की नियुक्ति और ब्रिटेन की सैन्य सेवा में गोरखाओं को भर्ती करने की अनुमति दी गयी थी, साथ ही इसके द्वारा नेपाल ने अपनी किसी भी सेवा में किसी अमेरिकी या यूरोपीय कर्मचारी को नियुक्त करने का अधिकार भी खो दिया। (पहले कई फ्रांसीसी कमांडरों को नेपाली सेना को प्रशिक्षित करने के लिए तैनात किया गया था)
संधि के तहत, नेपाल ने अपने भूभाग का लगभग एक तिहाई हिस्सा गंवा दिया जिसमे नेपाल के राजा द्वारा पिछ्ले 25 साल में जीते गये क्षेत्र जैसे कि पूर्व में सिक्किम , पश्चिम में
कुमाऊं और गढ़वाल राजशाही और दक्षिण में तराई का अधिकतर क्षेत्र शामिल था। तराई भूमि का कुछ हिस्सा 1816 में ही नेपाल को लौटा दिया गया। 1860 में तराई भूमि का एक बड़ा हिस्सा नेपाल को 1857 के भारतीय विद्रोह को दबाने में ब्रिटिशों की सहायता करने की एवज में पुन: लौटाया गया।
काठमांडू में तैनात ब्रिटिश प्रतिनिधि मल्ल युग के बाद नेपाल में रहने पहला पश्चिमी व्यक्ति था। (यह ध्यान देने योग्य है कि 18 वीं सदी के मध्य में गोरखाओं ने नेपाल पर विजय प्राप्ति के बाद बहुत से ईसाई धर्मप्रचारकों को नेपाल से बाहर निकाल दिया था)। नेपाल में ब्रिटिशों के पहले प्रतिनिधि, एडवर्ड गार्डनर को काठमांडू के उत्तरी हिस्से में तैनात किया गया था और आज यह स्थान लाज़िम्पाट कहलाता है और यहां ब्रिटिश और भारतीय दूतावास स्थित हैं। दिसम्बर 1923 में सुगौली संधि को अधिक्रमित कर "सतत शांति और मैत्री की संधि", में प्रोन्नत किया गया और ब्रिटिश निवासी के दर्जे को प्रतिनिधि से बढाकर दूत का कर दिया गया। 1950 में भारत (अब स्वतंत्र) और नेपाल ने एक नयी संधि पर दो स्वतंत्र देशों के रूप में हस्ताक्षर किए गए जिसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच संबंधों को एक नए सिरे से स्थापित करना था।
सुगौली संधि की शर्तें
ब्रिटिश-नेपाली युद्ध के बाद, नेपाल सरकार और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच शांति और मैत्री की एक संधि पर हस्ताक्षर किये गये। 2 दिसम्बर 1815 को इस संधि पर नेपाल सरकार की ओर से राज गुरु गजराज मिश्रा जिनके सहायक चंद्र शेखर उपाध्याय थे और कंपनी की ओर से लेफ्टिनेंट कर्नल पेरिस ब्रेडशॉ द्वारा हस्ताक्षर किये गये। 4 मार्च 1816 को चंद्र शेखर उपाध्याय और जनरल डेविड ऑक्टरलोनी द्वारा मकवानपुर में संधि की हस्ताक्षरित प्रतियों का आदान प्रदान किया गया। संधि की शर्तें निम्नलिखित थीं: -
1- ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल के राजा के बीच सदैव शांति और मित्रता रहेगी।
2- नेपाल के राजा उन सभी भूमि दावों का परित्याग कर देंगे जो युद्ध से पहले दोनो राष्ट्रों के मध्य विवाद का विषय थे और उन भूमियों की संप्रभुता पर कंपनी के अधिकार को स्वीकार करेंगे।
3- नेपाल के राजा शाश्वत रूप से निम्न उल्लिखित सभी प्रदेशों को ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप देंगे:
(क) काली और राप्ती नदियों के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र।
(ख) बुटवाल को छोडकर राप्ती और गंडकी के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र।
(ग) गंडकी और कोशी के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र जिस पर ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अधिकार स्थापित किया गया है।
(घ) मेची और तीस्ता नदियों के बीच का सम्पूर्ण तराई क्षेत्र।
(च) मेची नदी के पूर्व के भीतर प्रदेशों का सम्पूर्ण पहाड़ी क्षेत्र। साथ ही पूर्वोक्त क्षेत्र गोरखा सैनिकों द्वारा इस तिथि से चालीस दिन के भीतर खाली किया जाएगा।
4- नेपाल के उन भरदारों और प्रमुखों, जिनके हित पूर्वगामी अनुच्छेद (क्रमांक ३) के अनुसार उक्त भूमि हस्तांतरण द्वारा प्रभावित होते हैं, की क्षतिपूर्ति के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी, 2 लाख रुपये की कुल राशि पेंशन प्रतिवर्ष के रूप में देने को तैयार है जिसका निर्णय नेपाल के राजा द्वारा लिया जा सकता है।
5- नेपाल के राजा, उनके वारिस और उत्तराधिकारी काली नदी के पश्चिम में स्थित सभी देशों पर अपने दावों का परित्याग करेंगे और उन देशों या उनके निवासियों से संबंधित किसी मामले में स्वयं को सम्मिलित नहीं करेंगे।
6- नेपाल के राजा, सिक्किम के राजा को उनके द्वारा शासित प्रदेशों के कब्जे के संबंध में कभी परेशान करने या सताने की किसी भी गतिविधि में संलग्न नहीं होंगे। यदि नेपाल और सिक्किम के बीच कोई विवाद होता है तो उसे ईस्ट इंडिया कंपनी की मध्यस्थता के लिए भेजा जाएगा।
7- एतद्द्वारा नेपाल के राजा, ब्रिटिश सरकार की सहमति के बिना किसी भी ब्रिटिश, अमेरिकी या यूरोपीय नागरिक को अपनी किसी भी सेवा में ना तो नियुक्त करेंगे ना ही उसकी सेवाओं को बनाये रखेंगे।
8- एतद्द्वारा नेपाल और ब्रिटेन (ईस्ट इंडिया कंपनी) के बीच स्थापित शांति और सौहार्द के संबंधों की सुरक्षा और उनमें सुधार के उद्देश्य से, यह सहमति बनती है कि एक का मान्यता प्राप्त मंत्री, दूसरे की अदालत में रहेगा।
9- इस संधि का अनुमोदन नेपाल के राजा द्वारा इस तारीख से 15 दिनों के भीतर किया जाएगा और उसे लेफ्टिनेंट कर्नल ब्रेडशॉ को सौंपा जाएगा, जो उसे अगले 20 दिनों में या उससे पहले (यदि साध्य हो), गवर्नर जनरल से अनुमोदित करा कर राजा को सुपुर्द करेंगे।
वास्तव में, सुगौली संधि, ईस्ट इंडिया कंपनी के पक्ष में थी और इसके द्वारा नेपाल को अपने भूभाग का एक बड़ा हिस्सा गंवाना पड़ा था। इसलिए इसके बाद दिसम्बर 1816 में एक उत्तरगामी समझौते पर सहमति बनी जिसके अनुसार नेपाल को मेची नदी के पूर्व और
महाकाली नदी के पश्चिम के बीच का तराई क्षेत्र वापस लौटा दिया गया। इस समझौते के फलस्वरूप दो लाख रुपए प्रतिवर्ष की क्षतिपूर्ति राशि के प्रावधान को समाप्त कर दिया गया। एक भूमि सर्वेक्षण के द्वारा दोनों राष्ट्रों के बीच की सीमा को तय करने का प्रस्ताव भी स्वीकार किया गया था।
सुगौली संधि और मिथिला
संधि की वैधता
1. संधि के अनुच्छेद 9 के अनुसार संधि का अनुमोदन नेपाल के राजा द्वारा होना अनिवार्य था, लेकिन राजा गीर्वान युद्ध बिक्रम शाह द्वारा अनुमोदित संधि का अभिलेख निर्णायक रूप से नहीं मिलता है।
2. ब्रिटिशों को डर था कि नेपाल शायद, चंद्रशेखर उपाध्याय द्वारा 4 मार्च 1816 को हस्ताक्षरित संधि को लागू न करे। इसलिए, गवर्नर जनरल डेविड ऑक्टरलोनी ने ब्रिटिश सरकार की ओर से संधि की पुष्टि उसी दिन की और समकक्ष संधि को उपाध्याय को सौंप दिया।
3. कुछ लोगों कहना है कि चूंकि संधि, नेपाली राजशाही और अंग्रेजों के बीच हुई थी इसलिए इसे नेपाल गणराज्य और भारत गणराज्य के मध्य लागू नहीं किया जा सकता।
सीमा विवाद
क्योंकि इस संधि में राष्ट्रीय परिसीमन को स्पष्ट नहीं किया गया था, इसलिए इसके प्रभाव आज तक कायम है:
1. संधि यह बताने में विफल रही है कि कुछ स्थानों पर एक स्पष्ट वास्तविक सीमा रेखा कहां से गुजरेगी। कई स्थानों पर सीमा के निर्धारण और सीमा स्तंभों की स्थापना को लेकर विवाद है। अनुमान लगाया गया है ऐसे विवादित स्थानों का क्षेत्रफल लगभग 60,000 हेक्टेयर है। ऐसे कई क्षेत्रों में दोनो ओर से अब भी दावे, प्रतिदावे किये जा रहे हैं, जिन पर विचार-विमर्श, विवादों और तर्कों का दौर जारी है।
2. नतीजा यह है कि आज भी नेपाल-भारत की सीमा रेखा के 54 स्थानों पर अतिक्रमण और विवादों के आरोप हैं। प्रमुख क्षेत्रों में कालापानी-लिम्पियाधुरा, सुस्ता, मेची क्षेत्र, टनकपुर, सन्दकपुर, पशुपतिनगर हिले थोरी आदि स्थानों की पहचान की गई है।
1795 में ब्रिटिश भारत और नेपाल। आज भी यही सीमायें हैं।
1805 का यह नक्शा नेपाल के उस विस्तार दर्शाता है, जो भारतीय रियासतों को परास्त कर प्राप्त हुआ था। इसके परिणामस्वरूप नेपाल की पश्चिमी सीमा कांगड़ा के निकट सतलुज नदी तक पहुंच गयी थी। सुगौली संधि के कारण यह भाग भारत को वापस मिले।
दो साल लंबे चले ब्रिटिश- नेपाली युद्ध को खत्म करने के लिए 1816 में, ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाल की गोरखा राजशाही ने इस संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस संधि के तहत, मिथिला क्षेत्र का एक हिस्सा भारत से अलग होकर नेपाल के अधिकार क्षेत्र में चला गया। [1] इस भाग को नेपाल में, पूर्वी तराई या मिथिला कहा जाता था। [2]
सुगौली संधि के बाद से, नेपाल मिथिला (गौण भाग) के उत्तरी भागों पर नियंत्रण रखता है, जबकि दक्षिणी भाग (मुख्य भाग) भारत के नियंत्रण में हैं।
सुगौली संधि से पहले तक
सुगौली संधि के अस्तित्व में आने तक, पूर्व में
दार्जिलिंग और तिस्ता, दक्षिण-पश्चिम में
नैनीताल और पश्चिम में कुमाऊं राजशाही, गढ़वाल राजशाही और बाशहर जैसे क्षेत्र नेपाल के अधीन आते थे। इन क्षेत्रों पर नेपाल ने पिछले लगभग 25 वर्षों के दौरान विजय प्राप्त की थी, जिन्हें संधि के बाद भारत को वापस लौटाया गया।
.
.
.
निश्चय ही इस लेख में मिथिला की कहीं कोई चर्चा नही है मगर इस संधि का सबसे बुरा प्रभाव मिथिला पर पड़ा है और आज मिथिला दोनो देशों में उपेक्षित है।
एसा हो नही सकता कि अब फिर एक हो मगर हम इतना जरुर कर सकते हैं कि अपनी संस्कृति की रक्षा करें और इतिहास के इस काले पन्ने के साथ जो सच्चाई है वो सार्वजनिक कर नव मिथिला निर्माण , भारत और नेपाल दोनो जगह करवाने में योगदान करें।
.
.
जय मिथिला
जय जय मैथिल
www.maithilmanch.com
हर हर महादेव
आगम ग्रंथों में स्पष्ट लिखा है कि --- भस्म, त्रिपुंड एवं रुद्राक्षमाला धारण किये बगैर भगवान सदाशिव व् आदी शक्ति पराम्बा की पूजा उतनी फलदायिनी नहीं होती|
इसीलिए देवी व् शिवभक्त भस्म, त्रिपुंड और मस्तक पर सिन्दूर का टीका व् रुद्राक्ष माला धारण करते हैं| यह कथा ब्रह्मचर्य और वैराग्य की महिमा को भी प्रकाशित करती है|
त्रिपुण्ड शिव व् सिन्दूर का टीका भगवती का चिन्ह अंकित करती है
भस्मलेप को अग्नि-स्नान माना जाता है| यामल तंत्र के अनुसार सात प्रकार के स्नानों में अग्नि-स्नान सर्वश्रेष्ठ ह|
भस्म देह की गन्दगी को दूर करता है| भगवान शिव ने अपने लिए आग्नेय स्नान को चुन रखा है| शैवागम के तन्त्र ग्रंथों में इस विषय पर एक बड़ा विलक्षण बर्णन है जो ज्ञान की पराकाष्ठा है|
"भ" और "स्म" इनका अर्थ अलग अलग है| "स्म" क्रिया स्वरुप भूतकाल को दर्शाता है| 'भ'कार शब्द की व्याख्या भगवान शिव पार्वती जी को करते हैं - "भकारम् श्रुणु चार्वंगी स्वयं परमकुंडली| महामोक्षप्रदं वर्ण तरुणादित्य संप्रभं ||
त्रिशक्तिसहितं वर्ण विविन्दुं सहितं प्रिये| आत्मादि तत्त्वसंयुक्तं भकारं प्रणमाम्यह्म्||" महादेवी को संबोधित करते हुए महादेव कहते हैं कि हे (चारू+अंगी) सुन्दर देह धारिणी, 'भ'कार 'परमकुंडली' है| यह महामोक्षदायी है जो सूर्य की तरह तेजोद्दीप्त है|इसमें तीनों देवों की शक्तियां निहित हैं । यहाँ 'परमकुंडली' का अर्थ बताना अति आवश्यक है|मूलाधार से आज्ञाचक्र तक का मार्ग अपरा सुषुम्ना है| जब कुण्डलिनी महाशक्ति गुरुकृपा से आज्ञाचक्र को भेद कर सहस्त्रार में प्रवेश करती है तब वह मार्ग उत्तरा सुषुम्ना है| अपरा सुषुम्ना में कुण्डलिनी जागती है, और उत्तरा सुषुम्ना के मार्ग में यह "परमकुंडली" कहलाती है| महादेव 'भ'कार द्वारा उस महामोक्षदायी परमकुण्डली की ओर संकेत करते हुए ज्ञानी साधकों की दृष्टि आकर्षित करते हुए उन्हें कुंडली जागृत कर के उत्तरा सुषुम्ना की ओर बढने की प्रेरणा देते हैं कि वे शिवमय हो जाएँ| जो निराकार ब्रह्म शिव है य शून्य (शिव लिंग ) है उनिके इछा से स्रष्टि की रचना और पालन हुवा है और उनिकी इछा से स्रष्टि का अंत भी है सृष्टि का जब अंत होता है तो शेष कुछ नहीं बचता जो कुछ बचता ही नहीं जो अंतिम सृष्टि का स्वरूप होगा उसीको भस्म कहा जाता है जब लकड़ी (संसार )की अंकुर (जन्म से ) अनेक रूप लेता है और जब लकड़ी को आग लगता है तो जलकर राख बनजाता है राख में भी कुछ शेष रहता है और उस राख भी न रहते हुवे भस्म (शून्य) बनता है और वह भष्म जो शरीर रहित शिव (निराकार ब्रहम ) इस भस्म को धारण करता है | इस कारण शिव को भस्म प्रिय है और वो भी त्रिपुंड (प्राण ,शारीर , और अहंकार ) रहितहोता है निर्लिप्त जो भस्म कुछ नहीं वही शिव (जो निशुन्य है )धारण करता है जहा जो भाव , जीव ,और शिव का ऐक्य है वही लिंग है और उस लिंग को गुण त्रय, भाव त्रय और प्राण त्रय रहित भस्म ( निराकार ब्रह्म ) शिव को लेपन किया जाता है | भस्म अर्थार्त जो शेष होता है जो अपने , गुण, रूप ,रंग पंचत्व को खोकर जो शेष है वही भस्म है वह भस्म शिव प्रिय है इस कारण शिव स्मशान में है जहां सब कुछ अंत होता है और वही भस्म बनता है | महादेव शिवजी का न आदि है न ही अंत। शास्त्रों में शिवजी के स्वरूप के संबंध कई महत्वपूर्ण बातें बताई गई हैं। इनका स्वरूप सभी देवी-देवताओं से बिल्कुल भिन्न है। जहां सभी देवी-देवता दिव्य आभूषण और वस्त्रादि धारण करते हैं वहीं शिवजी ऐसा कुछ भी धारण नहीं करते, वे शरीर पर भस्म रमाते हैं, उनके आभूषण भी विचित्र हैं। धार्मिक मान्यता यह है कि शिव को मृत्यु का स्वामी माना गया है और शिवजी शव के जलने के बाद बची भस्म को अपने शरीर पर धारण करते हैं। इस प्रकार शिवजी भस्म लगाकर हमें यह संदेश देते हैं कि यह हमारा यह शरीर नश्वर है और एक दिन इसी भस्म की तरह मिट्टी में विलिन हो जाएगा। अत: हमें इस नश्वर शरीर पर गर्व नहीं करना चाहिए। कोई व्यक्ति कितना भी सुंदर क्यों न हो, मृत्यु के बाद उसका शरीर इसी तरह भस्म बन जाएगा। अत: हमें किसी भी प्रकार का घमंड नहीं करना चाहिए। भगवान् शिव सन्देश देते हैं कि – मृत्यु के पश्चात् देह जलाने से सबकुछ नष्ट नहीं होता। भस्म शेष रह जाती है,जो हमारी आत्मा की प्रतीक बनती है—जो नश्वर है, शाश्वत है। यह भस्म प्रदर्शित करती है कि संसार में सबकुछ नश्वर है, केवल भस्म अर्थात् आत्मा ही अमर, अजर और अविनाशी है! अतएव, भस्म (आत्मा) ही सत्य है, शेष सब मिथ्या, भ्रम और नश्वर। इसीलिए भगवान् शिव शरीर पर भस्म धारण किये हुए सर्ष्ण देते है,जिसका तात्पर्य है कि वे भस्म अर्थात्, आत्मा को अंगीकार करते हैं, और संसार के शेष भौतिक तत्त्व उनके लिये निरर्थक हैं, अनावश्यक हैं। शिव को मनोरम वेशभूषा और अलंकारों की आवश्यकता भी नहीं है। वे तो औघड़ बाबा हैं। जटाजूट धारी, गले में लिपटे नाग और रुद्राक्ष की मालाएं, शरीर पर बाघम्बर, चिता की भस्म लगाए एवं हाथ में त्रिशूल पकड़े हुए वे सारे विश्व को अपनी पद्चाप तथा डमरू की कर्णभेदी ध्वनि से नचाते रहते हैं। इसीलिए उन्हें नटराज की संज्ञा भी दी गई है। उनकी वेशभूषा से 'जीवन' और 'मृत्यु' का बोध होता है। शीश पर गंगा और चन्द्र –जीवन एवं कला के द्योतम हैं। शरीर पर चिता की भस्म मृत्यु की प्रतीक है। यह जीवन गंगा की धारा की भांति चलते हुए अन्त में मृत्यु सागर में लीन हो जाता है। दरअसल भस्म शिव का एक रहस्य भी है, जो आदि से प्रारंभ होकर अनंत तक की यात्रा अभिव्यक्त करता है,क्योंकि भस्म ही हमें यह याद दिलाती है कि जीवन क्षणिक है। वैज्ञानिक नजरिए से देखा जाए तो इसका कारण बहुत सीधा सा है। भस्म शरीर पर आवरण का काम करती है। यह कपड़ों जितनी ही उपयोगी होती है। भस्म बारीक लेकिन कठोर होती है जो हमारे शरीर की त्वचा के उन रोम छिद्रों को भर देती है जिससे हम सर्दी या गर्मी महसूस करते हैं। अगर दार्शनिक पक्ष से देखें तो संन्यास का अर्थ है संसार से अलग परमात्मा और प्रकृति के सान्निध्य में रहना। संसारी चीजों को छोड़कर प्राकृतिक साधनों का उपयोग करना। भस्म उन्हीं प्राकृतिक साधनों में शुमार है जो कहीं भी आसानी से उपलब्ध हो सकती है। भस्म का दार्शनिक अर्थ भी हैं और वैज्ञानिक महत्व भी है। शैव संप्रदाय के सन्यासियों में भस्म का विशेष महत्व है। श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है। भस्मागराकायमहेश्वराय। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा सृष्टिकर्ता, विष्णु पालनकर्ता तथा शिव संहारकर्ता हैं। मृत्यु जो शाश्वत सत्य है। उसके ही स्वामी शिव हैं इसलिए कहते भी है सत्यं शिवं सुंदरम्। अर्थात् सत्य शिव के समान सुंदर है।संसार में सत्य केवल मृत्यु ही है और उसके ईश्वर भगवान शिव हैं। शिव का शरीर पर भस्म लपेटने का दार्शनिक अर्थ यही है कि यह शरीर जिस पर हम गर्व करते हैं, जिसकी सुरक्षा का इतना इंतजाम करते हैं। इस भस्म के समान ही तो हो जाएगा। भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड बनाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है। साथ साथ उस भस्म कों साधक अपने मस्तक एवं अनेक अंगों पर लगते हैं तो उसके अलग अलग फल प्राप्त होते हैं। भस्म दो प्रकार के होते हैं: १. महा भस्म २. स्वल्प भस्म...महा भस्म शिवजी का मुख्य स्वरुप है। पर स्वल्प भस्म की अनेक शाखाएं हैं स्त्रोत, स्मार्त और लौकिक भस्म अत्यंत प्रसिद्द स्वल्प भस्म की शाखाएं हैं। जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती हैं उसे स्त्रोत भस्म कहा जाता है, जो भस्म स्मृति अथवा पुरानो की रीति से धारण की जाती है उसे स्मार्त कहते हैं। जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है उसे लौकिक कहा जाता है। भ और स्म दो अक्षरों का योग है भस्म भ यानि भरत्स्नम यानि विनस्टकरना। स्म यानि देस्त्रॉयस्मा यानि स्मरण ,याद। जब दुर्गुणों का नाश होता है तब उस परम तत्व (परमेश्वर शिव का हम स्मरण करते हैं),उसकी याद आती है। भस्म को विभूति भी कहा जाता है । . शिव का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा आध्यामित्क कारण भी हैं।भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। भस्मी त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्मी धारण करने वाले शिव यह संदेश भी देते हैं कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढ़ालना मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है। जलते कंडे में जड़ी-बूटी और कपूर-गुगल की मात्रा डाली जाती है कि यह भस्म सेहत की दृष्टि से उपयुक्त होती है। श्रौत, स्मार्त और लौकिक ऐसे तीन प्रकार की भस्म कही जाती है। श्रुति की विधि से यज्ञ किया हो वह भस्म श्रौत है, स्मृति की विधि से यज्ञ किया हो वह स्मार्त भस्म है तथा कण्डे को जलाकर भस्म तैयार की हो वह लौकिक भस्म है। विरजा हवन की भस्म सर्वोत्कृष्ट मानी है। भस्म से विभूषित भक्त को देखकर देवता भी प्रसन्न होते हैं। हमें शिव के सभी मंत्रों, श्लोकों और स्त्रोतों में भस्म का वर्णन पढ़ने को मिल जाता है। जैसे आदिशंकराचार्य ने शिवपञ्चाक्षर स्तोत्र में कहा है- श्चिताभस्मालेप: सृगपि नृकरोटिपरिकर: या 'भस्मांगराकाय महेश्वराय'। त्रिपुंड की तीन रेखाएं हैं, भृकुटी के अंत में मस्तक पर मध्यमा आदि तीन अंगुलियों से भक्ति पूर्वक भस्म का त्रिपुंड लगाने से भक्ति मुक्ति मिलती है। इसे शिव तिलक भी कहते हैं। यह शरीर की तीन नाड़ियों इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना का भी प्रतिनिधित्व करती हैं। इसे लगाने से ना सिर्फ आत्मा को परम शांति मिलती है बल्कि सेहत की दृष्टि से भी चमत्कारिक लाभ देती है। तीन रेखाओं के क्रमशः नौ देवता हैं। वे सब अंगों में हैं इसलिए सब अंगों में भस्म स्नान का वर्णन है। प्रथम रेखा के देवता महादेव हैं। वे 'अ' कार, गार्हपत्य अग्नि-भू रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, पृथ्वी, धर्म, प्रातः सवन हैं। दूसरी रेखा के देवता महेश्वर हैं जो 'उ' कार दक्षिणाग्नि आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद माध्यन्दिन सवन इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा हैं। तीसरी रेखा के देवता शिव हैं वे 'म' कार आह्वानीय अग्नि परात्मारूप तमोगुण स्वर्गरूप, ज्ञानशक्ति, सामवेद और तृतीय सावन हैं।इन तीन देवताओं को नमस्कार करके शुद्ध होकर त्रिपुण्ड धारण करने से सब देवता प्रसन्न होते हैं।....